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धूल में मिलती धरोहर (मशहूर लेखक जॉर्ज ऑरवेल के जन्मदिन पर)

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पवन कुमार
लेखक  वरिष्ठ पत्रकार हैं
खटर…पटर…खटर….पटर…पटर…खटर….। सुबह के 6 बज गए हैं। ट्रेन में कोई कितना सोए। कहीं से मोबाइल की ऊंची आवाज़ सुनाई दे रही है।
मेरे सामने निचली सीट पर लेटी महिला यात्री यूट्युब पर अचार बनाने का वीडियो देख रही है–पहले आम काटकर उसे गरम पानी के साथ उबाल दीजिए….. फिर उसे धूप में सुखा दीजिए….वगैरह वगैरह।
मैंने हिम्मत बटोरकर बोला- आप हेडफ़ोन लगा लीजिए, सुबह-सुबह बाक़ी यात्री परेशान हो रहे हैं। उन्होंने बंद तो कर दिया लेकिन मुंह फुलाकर बैठ गयीं।
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ये सप्तक्रांति एक्सप्रेस है, दिल्ली से चला हूं, मुझे बापूधाम मोतिहारी स्टेशन जाना है। आज शाम एक शादी में शिरकत करनी है। एक दूर दराज़ गांव में। हम अभी पौने दो घंटे दूर हैं, नौ बजे तक मोतिहारी पहुंच जाउंगा।
मोतिहारी में यूं तो आधुनिक इतिहास का जख़ीरा पड़ा है। इसाइयों का आगमन, बेतिया नरेश का मिशनरियों को धर्मप्रचार की परमिशन, नील किसानों का आंदोलन, गांधी का पदार्पण, अंग्रेज़ों से लड़ाई और न जाने इतिहास के कई रोचक टुकड़े यहां की सरज़मीन पर बिखरे पड़े हैं।
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परंतु आज, बात विश्वप्रसिद्ध लेखक जॉर्ज ऑरवेल, मोतिहारी में उनकी जन्मस्थली और उसकी धुर उपेक्षा के बारे में। परतंत्र भारत में पैदा मशहूर अंग्रेज़ी लेखकों में जॉर्ज ऑरवेल और रुडयार्ड किपलिंग का नाम सबसे ऊपर है।
120 साल पहले 1903 में 25 जून को जॉर्ज ऑरवेल मोतिहारी में पैदा हुए। उनके बचपन का नाम था आर्थर एरिक ब्लेयर। ऑरवेल के नाम ‘एनीमल फार्म’ और ‘1984’ जैसी कालजयी रचनाएं हैं।
ट्रेन रूक-रूक कर चल रही है। सोच रहा हूं एरिक आर्थर ब्लेयर की पैदाइश के वक्त कैसी रही होगी वो दुनिया, कैसा रहा होगा मोतिहारी शहर।
मोतिहारी में पैदा आर्थर एरिक ब्लेयर इंग्लैंड में पढ़ाई पूरी करने और करीयर में आने के बाद ब्लेयर से जॉर्ज ऑर्वेल कैसे बन गए। नाम बदला कब, ये नौबत आई क्यों ?
दरअसल इसकी एक कहानी है। उन्होनें 1933 में अपनी पहली किताब लिखी “Down and Out in Paris and London,”।
उन्हें कोई प्रकाशक नहीं मिला। ब्लेयर निराश थे। मशहूर कवि टी एस इलियट ने एक प्रकाशक के रूप में फेबर & फेबर को एरिक ब्लेयर की किताब छापने से मना कर दिया। इलियट का क़द उन दिनों बहुत बड़ा था। 1948 में उन्हें नोबेल प्राइज़ भी मिला।
आर्थर एरिक ब्लेयर को फेल होने का डर था। इसलिए उन्होनें नाम बदलकर किताब छपवाने का फैसला किया। वो आर्थर एरिक से जॉर्ज ऑरवेल बन गए। इसी नए नाम से किताब बाद में छपी और उन्होनें सफलता का नया कीर्तिमान हासिल किया।
इसके बाद एरिक ब्लेयर ने एक लेखक के रूप में अपनी सारी किताबें जॉर्ज ऑरवेल के नाम से ही लिखी।
खिड़की से बाहर ताक रहा हूं, रबी फ़सलें अभी अधपकी हैं। यूं तो पछिया हवा चलने का वक्त है ये, लेकिन सुबह है लिहाज़ा पता नहीं चल रहा। पौधे ओस की बुंदों से लदे हैं।
ऑरवेल को लेकर ऐसे ही न जाने कई विचार मन में कौंध रहे हैं। मसलन मशहूर कवि ईलियट ने क्या समझकर एरिक को छापने से मना कर दिया होगा ? अगर ईलियट ने इसे छापा होता तो शायद दुनिया ऑरवेल को ऑरवेल के नाम से नहीं जान पाती।
मैनाएं खेतों में फुदक रही हैं। मक्के के पौधे हवा में बल खा रहे हैं, कौए ढीठ होकर मक्के की बालियों पर पड़े हैं। मेरा सुझाव है, कौआ भगाने के लिए किसानों को अभिनेता रजनीकांत का पुतला खेतों में लगा देना चाहिए।
कई सालों बाद ओवरनाइट ट्रेन में सफर कर रहा हूं। ट्रेन के अंदर कुछ भी नहीं बदला दिख रहा।
सुबह ही से पैसेंजर्स बेसिन पर चढ़कर गला साफ कर रहे हैं। ट्रेन में शौचालय का पता और रास्ता पूछने की ज़रूरत नहीं है। बदबू के सहारे वहां तक पहुंचा जा सकता है। इस सुविधा का लाभ केवल भारत में ही मिलेगा।
फरवरी का दूसरा हफ्ता चल रहा है, सर्दियां बूढ़ी हो चुकी हैं। बोर होकर कंबल फैंक दिया और अपनी ही सीट पर लेटकर किताब में मन लगाने लग गया।
दो-चार पेज पढ़ा होऊंगा, मोतिहारी से बार-बार मेरे मित्र अमित श्रीवास्तव साहब का फोन आ रहा है। अमित जी सामाजिक कार्यकर्ता हैं, पत्रकार हैं। मोतिहारी रहते हैं। मेज़बान वही हैं, उन्हीं की अगवाई में मोतिहारी शहर का नक्शा नापेंगे आज।
सुबह के दस बजे हैं, तैयार होकर मोतिहारी देखने निकल पड़ा। अमित जी साथ हैं। देखने में बिहार के सारे शहरों का मिज़ाज एक सा लगता है। बावजूद इसके मोतीहारी थोड़ा अलग है। बड़े ख़ुशमिज़ाज लोग।
रास्ते में मोती झील है। विशाल फ़लक, सड़क के दोनों तरफ विस्तार लिए। कई नावें झील में इधर उधर डोल रही हैं। कहते हैं मोती झील सिकुड़ सा रहा है। आसपास कब्जा करनेवाले कर रहे हैं।
मोती झील के नाम पर ही इस शहर का नाम मोतिहारी पड़ा। इस झील में पहले मोती की खेती होती थी इसलिए झील का नाम मोती झील है।
हम शोर भरी सड़कों, सकरी गलियों होते हुए उस जगह पहुंच गए जहां जॉर्ज ऑरवेल का जन्म हुआ था।
कैंपस के गेट पर लिखा है-शताब्दी साहित्यकार जॉर्ज ऑरवेल की जन्मस्थली। मकान देखकर ही अंदाज़ा मिल जाता है कि इसका रखरखाव सरकार कितने बेमन से कर रही है।
मोतिहारी में जॉर्ज ऑरवेल का मूल होने का मुझे भी पता चला अब से चार पांच साल पहले, स्कॉटिश पत्रकार इयान जैक की किताब ‘मुफस्सिल जंक्शन’ से। इस किताब का एक अध्याय है- “In search of a Jaarj Arwil”. इसे लंदन की पत्रिका संडे टाइम्स ने 1984 में छापा था।
मोतिहारी में ऑरवेल की जन्मस्थली पर इयान जैक 1983 में गए। जैक के मुताबिक मोतिहारी में लोगों को जॉर्ज ऑरवेल के बारे में नहीं पता था। बहुत पूछताछ के बाद इयान जैक वहां पहुंचे जहां अफीम का गोदाम है और वो घर भी जहां ऑरवेल पैदा हुए।
ये अफीम का वही गोदाम है जहां ऑरवेल के पिता अफीम एजेंट की नौकरी करते थे। जॉर्ज ऑरवेल के घर के बगल वाला मकान है ये, ईंट ईंट बिखरा हुआ। इस गोदाम का इस्तेमाल अफीम स्टोरेज के लिए किया जाता था।
1980 के बाद इस मकान का कोई गोहैया नहीं रहा। इसके अंदर ढेर सारी बकरियां चर रही हैं।
यहां एक बड़ा सा मैदान है। चारों तरफ़ से भवन निर्माण का दबाव है, मैदान की सांसे रुकी हैं। स्थानीय लोग बताते हैं, शहर के भूमाफिया इस मैदान पर निगाहें टिकाए बैठे हैं।
मैदान में सैकड़ों लोग आ जा रहे हैं। इधर-उधर बेकाम से, बेकाम के लोग बैठे हैं, मोबाइल पर रील पर रीलें देखी जा रही है।
मुझे यहां अच्छी फ़ीलिंग नहीं आ रही। शोहदों का राज सा है। अलग अलग टुकड़ियों में आसपास के खांटी नशेड़ी लोग बैठे हैं।
जुआड़ियों के अलग ग्रुप हैं, गमछा बिछाकर ताश के पत्तों से क़िस्मत तय हो रही है। इनमें से कुछ सुबह सुबह ही ‘कच्ची’ लगाकर ताश पर जम गए हैं।
मैदान में मिट्टी से सने ढेर सारे सूअर और उनकी औलादें भी हैं। कुछ तो एक दूसरे से डिकी हुई हैं, कुछ शांति से घूम रहे हैं। एक गदहा मैदान के दूसरे छोर पर चर रहा है। शुक्र है, एक ही गदहा है। गायों का नामोनिशान नहीं है।
ऑरवेल के इतिहासकार मानते हैं कि जॉर्ज ऑरवेल की पैदाइश के 4 साल बाद 1907 में उनकी अम्मा ईदा उनकी बड़ी बहन मार्जोरी और ऑरवेल को लेकर ब्रिटेन चली गईं।
ऑरवेल के परिवार के वापस ब्रिटेन चले जाने की वजहों पर ज्यादा रिकॉर्ड नहीं मिलते हैं। मैंने बहुत कोशिश की खंगालने की, पर कुछ मिला नहीं।
बंगाल प्रशासन के 1906 के एक रिकॉर्ड के मुताबिक यहां अफीम एजेंटों का वेतन कम था। माना जाता है कि तंग वित्तीय हालत और परिवार में तनाव उनके भारत से वापस ब्रिटेन जाने की वजह हो सकती है।
हम कैंपस में और अंदर घुसते हैं। गेट पर शिलापट्टी है, इसपर ऑरवेल की तारीफ लिखी हुई है। दायीं तरफ जॉर्ज ऑरवेल की एक मूर्ति लगी है। यहां एक कूआं है जो जंगले की मदद से ऊपर से बंद है। हम चाहें तब भी कूएँ में नहीं कूद सकते।
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अंग्रेजी स्टाइल के मकान बने है। कुछ साल पहले सरकार ने इसका जीर्णोद्धार कराया है। दायीं तरफ एक कमरा है, जिसमें बेहिसाब धूल है, पोलीथीन की काली थैलियां इधर उधर उड़ रही है हवा से। देखकर लगता है, इसकी न तो सफाई हो रही और न ही लंबे समय से कोई यहां आया है।
अब घूमकर मकान की दूसरी तरफ जाता हूं। एक ओसारा है बायीं तरफ़। उसके पार एक कमरा है। इसी कमरे में जॉर्ज ऑरवेल का जन्म हुआ। कमरा बंद है। कमरे के दरवाज़े के ऊपर एक तस्वीर है। तस्वीर में ऑरवेल अपनी मां के साथ हैं। एक अन्य फोटो में ऑरवेल नैनी की गोद में हैं।
जॉर्ज ऑरवेल के पिता रिचार्ड वेम्स्ले ब्लेयर 18 साल की उम्र में अफीम एजेंट बन गए थे। भारत में कई जगहों पर तैनाती के बाद वो 46 साल की उम्र में मोतिहारी गए। यहीं जॉर्ज ऑरवेल जन्मे। कहते हैं ऑरवेल के अपने पिता से संबंध अच्छे नही रहे।
क़िस्मत का खेल देखिए। वेम्स्ले ब्लेयर के पिता यानी ऑरवेल के दादा इंग्लैंड में एक चर्च के पादरी थे और बेटा बन गया अफीम एजेंट।
..और अफीम एजेंट का बेटा बन गया विश्वप्रसिद्ध लेखक।
बर्मा में पुलिस की नौकरी के बाद ऑरवेल के मन में ब्रिटिश सरकार को लेकर हिकारत का भाव पैदा हो गया था ये ताजिंदगी उनकी रचनाओं में दिखा,‘एनीमल फार्म’ से लेकर ‘1984’ तक।
कहते हैं भारत के प्रति अपने झुकाव के बावजूद ऑरवेल कभी लौटकर भारत नहीं आ पाए। दो बार ऐसा हुआ जब वो यहां आते आते रहे गए।
पहली बार तब जब 1921 में उन्होनें ब्रिटिश इंपीरियल पुलिस ज्वाइन किया और भारत में पोस्टिंग होते होते उनकी नियुक्ति बर्मा में हो गयी। दूसरी दफा तब जब वो 1940 के आसपास लखनऊ के एक अख़बार ‘Pioneer’ में नौकरी लेते लेते रह गए।
दरअसल वो ब्रिटिश साम्राज्यवाद की नीतियों से इत्तेफ़ाक नहीं रखते थे। क़िस्सा है कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल ने उनके अख़बार ज्वाइन करने में अड़ंगा लगा दिया था।
इंग्लैंड में रहते हुए भी जॉर्ज ऑरवेल कॉग्रेस पार्टी, भारत की आज़ादी और आंदोलन से सहानुभूति रखते थे। इस विषय पर उन्होंने कई लेख लिखे। इन्हीं में एक लेख था ‘’Reflections on Gandhi’। इसमें उन्होंने गांधी की प्रशंसा की थी।
भारत की आज़ादी के बाद वो चाहते तो भारत आ सकते थे। लेकिन तब तक वो टीबी से परेशान रहने लगे और चाहत के बावजूद अपना जन्मस्थान देखने कभी वापस नहीं आ पाए।
गार्ड से पूछता हूं-लोग आते हैं देखने ? वो कुछ बोल ही नहीं रहा। न उसे इतिहास का बोध है न ही ऑरवेल के बारे में पता। मैं उससे उम्मीद भी नहीं करता। जब अच्छे अच्छों को जॉर्ज ऑरवेल जैसी थाती की फिक्र नहीं तो इन्हें क्या पड़ी है।
अख़बार पढ़नेवालों को एक नाम याद होगा जय दुबाशी, ये बीजेपी के आइडियोलोग थे, इंडियन एक्सप्रेस, इलस्ट्रेटेड वीकली के एडिटर भी रहे। इनका संदर्भ यहां इसलिए क्योंकि ऑरवेल के साथ उठ बैठ करनेवालों में से हम केवल इन्हें ही देख पाए।
1946-49 के बीच दुबाशी की मुलाकात लंदन में जॉर्ज ऑरवेल से अक्सर होती थी। दुबाशी इंग्लैंड में भारत के उच्चायुक्त कृष्णा मेनन के निजी सचिव थे। एक बार दुबाशी ने ऑरवेल से पूछा- क्या आपको भारत देखने का मन नहीं करता। ‘’ मैं भारतीय हूं, मेरा जन्म भी भारत में हुआ है ’’ऑरवेल ने जवाब दिया।
दरअसल लंदन में सोहो की जिस महफ़िल में ऑरवेल चाय-कॉफ़ी पर मिलते उसमें उनके साथ मशहूर साहित्कार ई एम फोर्स्टर भी होते। दुबाशी और कृष्ण मेनन भी अक्सर इस महफ़िल में शिरकत करते।
दुबाशी लिखते हैं-‘’1946 की गर्मियां रही होंगी जब मैं पहली बार ऑरवेल को मिला था, मैं न तो उनके बारे में जानता था न ही फोर्स्टर के बारे में। लेकिन पहली ही मुलाकात में ऑरवेल में मुझे आकर्षण दिखा’’।
ऑरवेल सोशलिस्ट विचारधारा से प्रभावित थे और कम्युनिस्टों को नापसंद करते थे। उनका ब्रिटिश विरोध तब परवान चढ़ा जब उन्होनें बीबीसी ज्वाइन किया। यहीं उनकी मुलाक़ात हिंदी फिल्मों के मशहूर अभिनेता बलराज साहनी से हुई।
जॉर्ज ऑरवेल मोतिहारी से 7500 किलोमीटर दूर इंग्लैंड के सटन कोर्टनी नाम के गांव में समाधिस्थ हैं। जिस जगह वो सो रहे हैं वो लंदन से डेढ़ घंटे की दूरी पर है।
कभी मौक़ा मिला तो वहां भी जाएंगे।
उनके जन्मस्थान का हाल तो बुरा देखा, जहां वो दफ़न हैं वहां किस हाल में हैं, वो भी देखेंगे। मैं उम्मीद करता हूं, बेहतर होंगे। अपनी थाती की फ़िक्र ब्रितानियों से ज्यादा किसी को नहीं शायद।
थोड़ी देर तक हम सब इस मकान का मुआयना करते रहे। दिल भारी सा हो रहा है। थाती तो थाती है, ये हम सबकी है, इसे संजोकर रखना उन्नत समाज होने का प्रतीक है।
25 जून को जॉर्ज ऑरवेल का जन्म दिन है। हमारे आसपास उन्हें याद करनेवाले शायद विरले ही बचे हैं।
जो समाज जॉर्ज ऑरवेल को भूल गया वो नीतीश कुमार को याद रखेगा क्या, चाहे शिलान्यास और उद्घाटन कर कितनी ही पट्टियां चिपका लें ?